(11 जून जयंती विशेष )
बेमिसाल बिस्मिल (जयंती पर विशेष वीडियो भी देखें) - https://youtu.be/VbYoY_B0L2k
काकोरी कांड में अवध चीफ कोर्ट का फैसला आते ही यह खबर आग की तरह समूचे हिंदुस्तान में फैल गयी। ठाकुर मनजीत सिंह राठौर ने सेण्ट्रल लेजिस्लेटिव कौन्सिल में काकोरी काण्ड के चारों मृत्यु-दण्ड प्राप्त कैदियों की सजायें कम करके आजीवन कारावास (उम्र-कैद) में बदलने का प्रस्ताव पेश किया। कौन्सिल के कई सदस्यों ने सर विलियम मोरिस को, जो उस समय संयुक्त प्रान्त के गवर्नर हुआ करते थे, इस आशय का एक प्रार्थना-पत्र भी दिया, परन्तु उसने उस प्रार्थना को अस्वीकार कर दिया।
19 दिसम्बर 1927 को राम प्रसाद को फांसी दे दी गयी,उनके अंतिम शब्द थे "मैं अंग्रेज साम्राज्य का विनाश चाहता हूं।"
इस 30 वर्ष की आयु में उन्होंने 11 वर्ष एक क्रांतिकारी की तरह बिताये। राम प्रसाद “ बिस्मिल” की आत्मकथा गणेश शंकर विद्यार्थी की देखरेख में 1928 में छपी और इतिहास इस बात का साक्षी है कि इस पुस्तक के प्रकाशन के बाद सशस्त्र क्रांतिकारी आंदोलन को बल मिला और वो बढ़ा ही, कभी कम नहीं हुआ...
30 साल के जीवनकाल में उनकी कुल मिलाकर 11 पुस्तकें प्रकाशित हुईं, जिनमें से एक भी गोरी सत्ता के कोप से नहीं बच सकीं और सारी की सारी अंग्रेजी हुकूमत द्वारा जब्त कर ली गयीं. हां, एक और बात उनके जीवन में विशेष रही, संभवतः वे पहले ऐसे क्रांतिकारी थे, जिन्होंने क्रांतिकारी के तौर पर अपने लिए सभी जरूरी हथियार अपनी लिखी पुस्तकों की बिक्री से मिले रुपयों से खरीदे थे।
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दीपिका नेगी पत्रकार/लेखिका |
“सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है,
देखना है जोर कितना बाजू-ए-कातिल में है।”
देखना है जोर कितना बाजू-ए-कातिल में है।”
भारत के स्वतंत्रता संग्राम में ये पंक्तियां सेनानियों का मशहूर नारा बनीं। 1921 में बिस्मिल अजीमाबादी की लिखी इन पंक्तियों को जिस व्यक्ति ने अमर बना दिया, वह थे राम प्रसाद बिस्मिल! बिस्मिल, एक स्वतंत्रता सेनानी होने के साथ-साथ एक कवि भी थे, जिन्होंने उर्दू व हिन्दी में ‘राम,’ ‘अज्ञात,’ और ‘बिस्मिल’ उपनाम से बहुत-सी कवितायें लिखी थीं।
बेमिसाल बिस्मिल (जयंती पर विशेष वीडियो भी देखें) - https://youtu.be/VbYoY_B0L2k
वह हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के संस्थापक भी थे, जिसमें भगत सिंह व चन्द्रशेखर आजाद जैसे सेनानी शामिल थे।
12 वर्ष की आयु से ही आर्य समाज की तरफ आकर्षित राम प्रसाद ने 9 अगस्त 1925 को सहारनपुर से चलने वाली गाड़ी को लखनऊ के पास लूटने की ठानी । इस लूट के दो लक्ष्य थे:-
पहला देश के भीतर शिथिल पड़े स्वतंत्रता आंदोलन को फिर से जीवित करना।
दूसरा लूट में प्राप्त धन से हथियार खरीदना, जिनका उपयोग स्वतंत्रता आंदोलन में किया जा सके ।
दूसरा लूट में प्राप्त धन से हथियार खरीदना, जिनका उपयोग स्वतंत्रता आंदोलन में किया जा सके ।
उस वक्त वे मात्र 28 वर्ष के थे। काकोरी लूट के संबंध में राम प्रसाद लिखते हैं “ हमने कह दिया था मुसाफिरों से न बोलेंगे। सरकार का माल लूटेंगे। इस कारण मुसाफिर भी शांति पूर्वक बैठे रहे । केवल 10 आदमियों ने इस घटना को अंजाम दिया।"
यह घटना आजादी आंदोलन के नजरिये से बहुत ही महत्वपूर्ण थी ।
काकोरी घटना के संबंध में इतिहासकार लिखते हैं “ फरवरी 1922 में चौरा-चौरी कांड के बाद जब गांधी जी ने असहयोग आंदोलन को वापस ले लिया, तब भारत के युवा वर्ग में जो निराशा उत्पन्न हुई उसका निराकरण काकोरी कांड ने ही किया था। "
यह घटना आजादी आंदोलन के नजरिये से बहुत ही महत्वपूर्ण थी ।
काकोरी घटना के संबंध में इतिहासकार लिखते हैं “ फरवरी 1922 में चौरा-चौरी कांड के बाद जब गांधी जी ने असहयोग आंदोलन को वापस ले लिया, तब भारत के युवा वर्ग में जो निराशा उत्पन्न हुई उसका निराकरण काकोरी कांड ने ही किया था। "
इस ट्रेन लूट में रामप्रसाद, आशफाक उल्ला खान ,राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी और रोशन सिंह को फांसी की सजा हुई। अश्फाक और राम प्रसाद में गहरी दोस्ती थी। इसके विषय में राम प्रसाद ने लिखा है कि “ सबको आश्चर्य था, कि एक कट्टर हिन्दू और मुसलमान का मेल कैसा। मैं मुसलमानो की शुद्धि करता था। आर्य समाज मंदिर में मेरा निवास था, किन्तु तुम इन बातों की चिंता न करते थे। हिन्दू मुस्लिम झगड़ा होने पर, तुम्हें मोहल्ले में हर कोई खुल्लम खुल्ला गलियां देता था। काफिर के नाम से पुकारते थे। पर तुम कभी भी उनके विचारों से सहमत न हुए। तुम एक सच्चे मुसलमान तथा सच्चे देश भक्त थे। तुम्हें यदि जीवन में कोई विचार था , तो यही की मुसलमानों को खुदा अक्ल देता कि वो हिंदुओं के साथ मिलकर हिंदुस्तान की भलाई करते। "
काकोरी कांड में अवध चीफ कोर्ट का फैसला आते ही यह खबर आग की तरह समूचे हिंदुस्तान में फैल गयी। ठाकुर मनजीत सिंह राठौर ने सेण्ट्रल लेजिस्लेटिव कौन्सिल में काकोरी काण्ड के चारों मृत्यु-दण्ड प्राप्त कैदियों की सजायें कम करके आजीवन कारावास (उम्र-कैद) में बदलने का प्रस्ताव पेश किया। कौन्सिल के कई सदस्यों ने सर विलियम मोरिस को, जो उस समय संयुक्त प्रान्त के गवर्नर हुआ करते थे, इस आशय का एक प्रार्थना-पत्र भी दिया, परन्तु उसने उस प्रार्थना को अस्वीकार कर दिया।
जब राम प्रसाद काल कोठरी में थे और फांसी का इंतजार कर रहे थे तब उन्होंने अपनी आत्मकथा लिखी। काल कोठरी में बिताए हुए दिन के विषय में भी उन्होंने अपनी आत्मा कथा में लिखा है - "कोई दोस्त और मददगार नहीं, जिसका सहारा हो, एक परमपिता परमात्मा की याद है, गीता पाठ करते हुए कम से कम संतोष तो है। "
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गोरखपुर जेल में बिस्मिल को फांसी हुई |
19 दिसम्बर 1927 को राम प्रसाद को फांसी दे दी गयी,उनके अंतिम शब्द थे "मैं अंग्रेज साम्राज्य का विनाश चाहता हूं।"
इस 30 वर्ष की आयु में उन्होंने 11 वर्ष एक क्रांतिकारी की तरह बिताये। राम प्रसाद “ बिस्मिल” की आत्मकथा गणेश शंकर विद्यार्थी की देखरेख में 1928 में छपी और इतिहास इस बात का साक्षी है कि इस पुस्तक के प्रकाशन के बाद सशस्त्र क्रांतिकारी आंदोलन को बल मिला और वो बढ़ा ही, कभी कम नहीं हुआ...
30 साल के जीवनकाल में उनकी कुल मिलाकर 11 पुस्तकें प्रकाशित हुईं, जिनमें से एक भी गोरी सत्ता के कोप से नहीं बच सकीं और सारी की सारी अंग्रेजी हुकूमत द्वारा जब्त कर ली गयीं. हां, एक और बात उनके जीवन में विशेष रही, संभवतः वे पहले ऐसे क्रांतिकारी थे, जिन्होंने क्रांतिकारी के तौर पर अपने लिए सभी जरूरी हथियार अपनी लिखी पुस्तकों की बिक्री से मिले रुपयों से खरीदे थे।
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